शीत युद्ध

1945 के बाद पूर्वी यूरोप के कई देशों यथा पोलैंड, रोमानिया, हंगरी, युगोस्लाविया जैसे देशों में सोवियत सेना के सहयोग से साम्यवादी सरकारें स्थापित कर दी गई जो पश्चिमी देशों के लिए स्पष्ट चुनौती थी l उन्होंने सोवियत संघ के इस कृत्य को यल्टा व पोर्टसडम सम्मेलनों का उल्लंघन बताया , विशेषत: यूनान को लेकर जिस पर ब्रिटिश प्रभुसत्ता पर सहमति बनी थी किन्तु वहां भी सोवियत संघ ने जब साम्यवादी दल का समर्थन कर दिया तो पश्चिमी देश उत्तेजित हो उठे और उन्होंने भी अपनी वैचारिक समर्थक सरकारों की स्थापना आरंभ कर दी इस तरह अब वैचारिक आधार पर सरकारें स्थापित कराई जाने लगी और इस प्रतिस्पर्धा में एक तरफ अमेरिका समर्थित पश्चिमी यूरोपीय राष्ट्र तो वहीं दूसरी तरफ सोवियत यूनियन समर्थित पूर्वी यूरोपीय राष्ट्र स्पष्टत: बंटे नजर आने लगेl

शीत युद्ध

                                                                                         "शीत युद्ध और उसका प्रभाव" 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व राजनीति व्यवस्था एक नई करवट लेती है, पूर्व की महा शक्तियों ब्रिटेन एवं फ्रांस के साम्राज्यों के अंत एवं जर्मनी, इटली एवं जापान की पराजय के पश्चात वैश्विक व्यवस्था के संचालन में यूरोप अपनी महत्ता खोने लगता है और USA व USSR  नए ध्रुव बनकर उभरते हैं, 1945 से 91 का दौर द्विध्रुवी व्यवस्था व शीत युद्ध के दौर के नाम से जाना गया क्योंकि :-

(a) USA व USSR के समक्ष राजनीतिक आर्थिक एवं सामरिक रूप से कोई अन्य शक्ति मौजूद नहीं थी और इन दोनों शक्तियों के साथ गठबंधन के आधार पर ही संपूर्ण विश्व स्पष्टत: दो भागों में बनता नजर आ रहा था l

(b) यह दौर उदारवाद ,लोकतंत्र, पूंजीवादी विचारधारा के प्रतिनिधित्व के रूप में USA व पश्चिमी यूरोप के देश तो दूसरी तरफ सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी व्यवस्था पर आधारित प्रणाली के बीच दो विचारधाराओं/व्यवस्थाओं का संघर्ष था l

चुकी यह प्रत्यक्ष युद्ध न होकर वैचारिक युद्ध अधिक था इसलिए यह शीत युद्ध कहलाया l इस वैचारिक टकराहट की शुरुआत तो 1917 के रूसी क्रांति के बाद ही आरंभ हो गई थी किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैचारिक वर्चस्व/ प्रभुत्व की टकराहट ने इसे स्पष्टत: धरातल पर ला दिया l

                              शीत युद्ध का तात्पर्य USA व USSR के नेतृत्व में विश्व में गंभीर तनाव की उपस्थिति और अस्त्र-शस्त्र की होड़ थी जिसमें कभी इन दोनों ने प्रत्यक्ष युद्ध तो नही किया किंतु अन्य क्षेत्रों में चल रहे युद्धों में अपने विचारधारा के समर्थकों के साथ भाग अवश्य लिया l उदाहरण स्वरूप कोरियाई युद्ध में यदि अमेरिका दक्षिण कोरिया के साथ तो सोवियत संघ उत्तर कोरिया के साथ खड़ा था l 


                                       स्वरुप एवम् प्रकृति 

शीत युद्ध दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष न होकर दो व्यवस्थाओं विचारधाराओं के मध्य का संघर्ष था l  विश्व की दोनों महा शक्तियों ने स्थानीय विवादों में भाग लेकर एक दूसरे को परास्त करने का प्रयास किया और उनकी मुख्य प्रयोगशाला एशिया बना l उदाहरणार्थ ईरान ,अफगानिस्तान इत्यादि l  दोनों महा शक्तियों ने भले ही प्रत्यक्ष युद्ध में भाग न लिया हो किंतु अस्त्र-शस्त्र की होड़, एक दूसरे के विरुद्ध कूटनीतिक सैन्य गठबंधन(NATO , WARSA पैक्ट) के द्वारा एक दूसरे को परास्त करने की कोशिश लगातार की l

पंडित नेहरू के अनुसार यह एक मनोवैज्ञानिक युद्ध था जिसमें दो महा शक्तियों की मनोदशा में एक दूसरे के प्रति आशंका व्याप्त हो गई थीl


                                       उद्भव और विकास


वस्तुत: शीत युद्ध की शुरुआत 1917 की रूस की साम्यवादी क्रांति के साथ ही हो चुकी थी क्योंकि अमेरिका व पश्चिमी देशों ने इसे एक खतरे के रूप में देखा और क्रांति को पलटने का प्रयास भी किया अर्थात शीत युद्ध के बीज तो 1917 के क्रांति के साथ ही बो दिए गए थे l उल्लेखनीय है कि रूसी साम्यवादी सरकार को कई वर्षों तक अमेरिका व ब्रिटेन ने मान्यता न देकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था l किंतु द्वितीय विश्व युद्ध और उसके बाद की परिस्थितियों के बाद तो यह वैचारिक संघर्ष अपने चरम रूप में आ गयाl

1930 के दशक में जब हिटलर ने रूस की पूर्वी सीमा पर आक्रामक नीति अपनाई तो ब्रिटेन व फ्रांस ने हिटलर का तुष्टिकरण कर उसकी महत्वाकांक्षा को बढ़ाया और उसका इस्तेमाल साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए कियाl द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने के बाद जब हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो सोवियत संघ ने अमेरिका व ब्रिटेन से सिफारिश की कि वह पश्चिम की ओर मोर्चा खोल दें किंतु जानबूझकर इन देशों ने इसे अत्यधिक दिनों तक टाले रखाl

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूएसए और सोवियत संघ दोनों ध्रुवीय शक्तियों के खिलाफ लड़ रहे थे विशेषत: जर्मनी के विरुद्ध, किंतु यह भी सत्य है कि उनकी एकजुटता स्वाभाविक न होकर तत्कालीन आवश्यकताओं का परिणाम थीl यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक शांति के लिए जब विभिन्न सम्मेलनों का आयोजन हुआ तब उसमें दोनों महा शक्तियों को संतुष्ट करने की कोशिश की गईl सोवियत संघ के यल्टा में आयोजित सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि जर्मनी द्वारा विजित व नियंत्रित क्षेत्रों में लोकतांत्रिक चुनावों के माध्यम से ही नई सरकार बनाई जाएगी और फिर 1945 के पोर्ट्सडम सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि संपूर्ण जर्मनी में एक ही प्रकार की राजनीतिक व आर्थिक प्रणाली को अपनाया जाएगाl इस तरह इन दोनों महा शक्तियों के बीच संघर्ष डालने का प्रयास किया गयाl  किंतु युद्ध की समाप्ति के बाद इन दोनों के बीच सहभागिता का आधार कमजोर होने लगा और औपचारिक रूप से शीत युद्ध की शुरुआत हो गई और कहा जाने लगा कि युद्ध कालीन मित्र अब मित्र नहीं रहे बल्कि शत्रु बन गए हैं l 

                                    1945 के बाद पूर्वी यूरोप के कई देशों यथा पोलैंड, रोमानिया, हंगरी, युगोस्लाविया जैसे देशों में सोवियत सेना के सहयोग से साम्यवादी सरकारें स्थापित कर दी गई जो पश्चिमी देशों के लिए स्पष्ट चुनौती थी l उन्होंने सोवियत संघ के इस कृत्य को यल्टा व पोर्टसडम सम्मेलनों का उल्लंघन बताया , विशेषत: यूनान को लेकर जिस पर ब्रिटिश प्रभुसत्ता पर सहमति बनी थी किन्तु वहां भी सोवियत संघ ने जब साम्यवादी दल का समर्थन कर दिया तो पश्चिमी देश उत्तेजित हो उठे और उन्होंने भी अपनी वैचारिक समर्थक सरकारों की स्थापना आरंभ कर दी इस तरह अब वैचारिक आधार पर सरकारें स्थापित कराई जाने लगी और इस प्रतिस्पर्धा में एक तरफ अमेरिका समर्थित पश्चिमी यूरोपीय राष्ट्र तो वहीं दूसरी तरफ सोवियत यूनियन समर्थित पूर्वी यूरोपीय राष्ट्र स्पष्टत: बंटे नजर आने लगेl                                        

  शीत युद्ध के इस वैचारिक प्रभुत्व का परिणाम सर्वाधिक जर्मनी को ही उठाना पड़ा, वस्तुत: जर्मनी और पश्चिम व पूर्वी जर्मनी में बांट दिया गया और इन दोनों के बीच कृत्रिम रूप से बर्लिन की दीवार खड़ी कर दी गईl पूर्वी जर्मनी पर यूएसएसआर का नियंत्रण था अतः वहां साम्यवादी तरीके से अर्थव्यवस्था को संचालित करने का प्रयास किया गया उदाहरण स्वरूप पूर्वी जर्मनी में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन व उद्योगों का राष्ट्रीयकरण जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया गया तो वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी जर्मनी अमेरिकी प्रभाव में पूंजीवादी तरीके से संचालित की जाने लगीl इस तरह जर्मनी का राजनीतिक व आर्थिक विभाजन कर दिया गया और बर्लिन पर नियंत्रण को लेकर तनाव इतना बड़ा की बर्लिन का विभाजन भी पश्चिमी व पूर्वी बर्लिन में कर दिया गया l   

सोवियत संघ के राष्ट्रपति स्टालिन ने बर्लिन ब्लॉकेज की योजना बनाई की कोई भी पश्चिमी देश बर्लिन में सहायता न पहुंचा सके अतः उसने संचार व परिवहन तंत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया, किंतु USA हवाई मार्ग से वहां सहायता पहुंचा कर स्टालिन को करारा जवाब दिया और इसके बाद स्टालिन ने भले ही बर्लिन ब्लॉकेज की योजना वापस ले ली हो किंतु अब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के विभाजन को स्पष्ट करते हुए इन दोनों के बीच एक दीवार खींच दी गई अर्थात यदि शीत युद्ध में वैचारिक विभाजन को समझना हो तो जर्मनी इसका प्रबल उदाहरण हैl इन्हीं परिस्थितियों में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैंन ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि स्वतंत्र समाज व लोगों को साम्यवादी खतरे से बचाने के लिए अमेरिका उनकी सहायता करेगा , यह साम्यवादियों के लिए खुली चुनौती थीl इसी बीच 1949 का वर्ष शीत युद्ध की तीक्ष्णता  को और बढ़ाने का कारक बना क्योंकि:

(i) इसी वर्ष सोवियत यूनियन ने परमाणु बम दक्षता हासिल कर अमेरिकी एकाधिकार को चुनौती दीl

(ii) 1949 की चीनी क्रांति भी अमेरिका के लिए एक शिकस्त थी क्योंकि अमेरिकी समर्थन के बावजूद चियांग काई शेक का पक्ष हार गया और माओ के नेतृत्व में वहां साम्यवादी सरकार स्थापित हो गईl1


Written by: satyendra
Published at: Sun, Mar 16, 2025 2:25 PM
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