कोरा कागज़
तुम्हारे यादों को लिए मैं एक कोरे कागज़ पे लिखता हूं,और वक्त बीत जाता है,और कोरा कागज़ कोरा ही रह जाता है।।

कोरे कागज़ पर मैं देखो ,
तुझको पढ़ता रहता हूं ,
अंतर मन की भाषा में ,
बस तुझको गढ़ता रहता हूं,
अपने हिस्से में आए ,
उन किस्सों को भर अंजुरी में ,
फिर उनमें डूबा करता हूं ,
कोरे कागज़ पर मैं देखो तुझको पढ़ता रहता हूं।
तेरी मुस्कान से प्रखर निखरता हूं ,
आंखों में पल - पल ढलता हूं ,
फिर नथ पर ऐसे फिसलता हूं ,
कि,जा होठों पर तनिक ठहरता हूं,
बन बर्फ सा यूं पिघलता हूं,
मैं जब जब तुझको पढ़ता हूं ,
जैसे कोरे कागज़ पर तुम देखो मैं कविता फ़िर वही करता हूं ।।
उन अदाओं पर मैं मरता हूं,
और तुझसे कहता रहता हूं,
की तेरी करधनी मुझसे कह रही,
तेरी लचक भी क्या लचक होगी ,
जैसे मृत्यु अब बेसबब होगी ,
कोरे कागज़ पर अब देखो उन रंगों को मैं भरता हूं,
जो स्वप्न देखे थे वो हमने ,
उन स्वप्नों में मैं रहता हूं,
कि कोरे कागज़ पर तुम देखो मैं बस तुमसे यही कहता हूं,
जैसे कोरे कागज़ पर तुम देखो,
मैं बस कोरा कागज़ पढ़ता हूं ,
बस कोरा कागज़ पढ़ता हूं ।।।।
Written by:
K Shiv
Published at: Fri, May 23, 2025 9:10 AM
Category:
हिंदी कविताएँ
Tags:
उर्दू शायरी